Godzila Vs Kong
Movie Review: गॉडजिला वर्सेस कॉन्ग
निर्देशक: एडम विनगार्ड
कथा: टेरी रोसियो, माइकल डी, डैक शील्ड्स
पटकथा: एरिक पीयर्सन, मैक्स बोरेनस्टीन
कलाकार: एलेक्जेंडर स्कार्सगार्ड, रेबेका हाल, शन ओगुरी, ब्रयान टायरी हेनरी और स्पेशल इफेक्ट्स से बने गॉडजिला व किंग कॉन्ग
रेटिंग: **
लीजेंडरी एंटरटेनमेंट अमेरिका में कैलीफोर्निया के बरबंक स्थित कंपनी है। इसकी जड़ें चीन की बहुराष्ट्रीय कंपनी समूह वांडा से पानी पाती हैं। स्वभाव से आक्रामक रही हैं चीनी कंपनियां। हॉलीवुड की तमाम कंपनियों से मिलकर ये वहां के बड़े फिल्म कारोबार पर अपनी मजबूत हिस्सेदारी स्थापित कर चुकी हैं। निशाने पर इनके हिंदुस्तान भी है। और, इसके लिए फिल्म निर्माण में दिलचस्पी रखने वाली चीनी कंपनियों ने बहुत पहले से हॉलीवुड को अपना रास्ता बना रखा है। तो, जब आप अपनी मेहनत की कमाई से थिएटर में फिल्म ‘गॉडजिला वर्सेंस कॉन्ग’ मास्क लगाकर देख रहे होंगे, आपका पैसा रुपये से डॉलर में तब्दील होकर युवान की शक्ल में चीन पहुंच रहा होगा। सिनेमा साम्राज्यवाद का नया युद्धक्षेत्र है। इस युद्धक्षेत्र में महाशक्तियां आमने सामने हैं और अंत किसी को नहीं पता, ठीक फिल्म ‘गॉडजिला वर्सेंस कॉन्ग’ की तरह।
फिल्म ‘गॉडजिला वर्सेंस कॉन्ग’ उन लोगों के लिए बनी फिल्म है जिन्हें विध्वंस भाता है। पिछले एक साल से कोरोना संक्रमण के चलते अपने अपने घरों में कैद रहे लोगों के लिए सिनेमा की अनुभूतियां बदल चुकी हैं। ऐसे में दो महादानवों या कहें कि महा महादानवों की आईमैक्स के बड़े परदे पर महाभिड़ंत तमाशे के लिए देखना तो ठीक हो सकता है लेकिन इसमें सिनेमा कहीं नहीं है, ये महातमाशा है जिसका संवेदनाओं से कुछ नहीं लेना देना। ये साइंस फिक्शन का वो चेहरा है जिसे थोड़ा फासला बनाकर चलना आने वाले समय के लिए बहुत जरूरी है, ठीक दिनेश ठाकुर की ग़ज़ल के मिसरे की तरह, ‘हर हंसीं मंजर से यारों फासले कायम रखो, चांद गर धरती पे उतरा देख कर डर जाओगे।’
महेश भट्ट ने होटल ली मैरीडियन के एक कमरे में मुझसे लंबी चर्चा के बाद फिल्म ‘राज’ में हिंदी के हॉरर सिनेमा को इलीट क्लास तक पहुंचाने का आइडिया पाया था और फिर इस फ्रेंचाइजी को अपने हिसाब से चलाने के चक्कर में इसका बेड़ा गर्क कर दिया था। वैसा ही कुछ लीजेंडरी पिक्चर्स के साथ होता दिख रहा है। ये कंपनी लंबे समय से बी और सी ग्रेड की क्रिएचर फिल्मों को इलीट क्लास का सिनेमा बनाने की कोशिश में लगी रही है। पुरानी फिल्मों को झाड़ पोंछकर नई तकनीक से फिर बनाने को सिनेकारों ने ‘रीबूट’ का नाम दिया। फिल्म ‘गॉडजिला वर्सेंस कॉन्ग’ भी 1962 में रिलीज हुई फिल्म ‘गॉडजिला एंड किंग कॉन्ग’ का रीबूट वर्जन है। जैसे हिंदी न्यूज चैनल किसी भी घटना में तिल का ताड़ बनाने के लिए हर चीज़ को जरूरत से ज्यादा हाहाकारी बनाने की कोशिशों में लगे रहते हैं, वैसी ही कोशिश इन दो महाजीवों का मुकाबला कराने की फिल्म ‘गॉडजिला वर्सेंस कॉन्ग’ में दिखती है।
फिल्म ‘गॉडजिला वर्सेंस कॉन्ग’ अंग्रेजी के अलावा भारतीय भाषाओं में भी रिलीज हुई है। ये भी प्रकट ही है कि जो संवेदनाएं अंग्रेजी फिल्म के शौकीनों की होती हैं, उनसे हिंदी फिल्म के दर्शकों की संवेदनाएं बिल्कुल दूसरी धुरी पर हो सकती हैं। हालांकि, भाषायी फिल्मों का एक बड़ा दर्शक वर्ग ऐसा भी है जो हिंदी और अंग्रेजी दोनों तरह की अच्छी फिल्मों का प्रशंसक रहा है लेकिन इस दर्शक वर्ग तक पहुंच पाने का जरिया अभी वार्नर ब्रदर्स इंडिया की मार्केटिंग टीम को सीखना बाकी है। फिल्म ‘गॉडजिला वर्सेंस कॉन्ग’ शोरगुल, अनर्गल प्रलाप और चीख पुकार वाली किसी लक्ष्यविहीन टीवी बहस की तरह है जिसमें दर्शक का समय तो खूब नष्ट होता है, लेकिन इस समय के बदले उसे कोई सुखद एहसास फिल्म खत्म होने के बाद मिल नहीं पाता है। फिल्म पूरी होने के बाद कुछ याद आता है तो वह है अब्दुल अहमद साज़ का इक शेर कि ज़िंदगी इक दूर तक संगीत थी अब शोर है, हां मगर इस शोर के बिखराव में...!
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